शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

लघुकथा

                                         भूकंप पीड़ित
उन चारों आवारा किस्म के नवयुवकों को देखकर मुझे आज प्रसन्नता ही हुई. मुझे लगा कि समाचारपत्रों,टीवी में भूकंप पीड़ितों की दशा सुनकर इनके दिल में भी अब मानवता की भावना जाग्रत हो चुकी है. तभी तो वे बड़ी तत्परता से शहर में घूम-घूम कर देश के एक क्षेत्र में आये भयंकर भूकंप से पीड़ित लोगों के लिए धन एकत्र करने में लगे हुए थे. उनके पास एक कनस्टरनुमा डिब्बा था. डिब्बे के उपरी हिस्से में एक सुराख था जिसमें लोग  रुपये, सिक्के डालते जाते थे, डिब्बे पर लिखा था –“भूकम्प राहत कोष “.
मानवता  के प्रति उनकी सदाशयता का में कायल हुआ. मैंने भी एक पाँच रुपये  का नोट निकालकर डिब्बे के हवाले कर दिया.
सदा की भांति में शाम को शहर के किनारे कम भीड़ भाड़ वाली जगह पर स्थित एक होटलनुमा ढाबे
की ओर चला गया. इसी ढाबे के ठीक सामने अंग्रेजी शराब की दूकान भी थी. ठेके से एक 'अद्धा' लेकर
मैं ढाबे के एक कोने में बैठकर अपने कार्यक्रम में व्यस्त हो गया.
-“यार, आज तो खाली पकौड़े,नमकीन से काम नहीं चलेगा .आज की कमाई अच्छी रही पुरे आठ सौ रूपये डिब्बे से निकले हैं, मेरी मानो तो आज चार तंदूरी मुर्गे का भी आर्डर दे दो.”
आवाज सुनकर जब में घूमा तो मेरी नजर उन्हीं चार लडकों पर पड़ी जो भूकंप पीड़ितों के लिए पैसे इकट्ठे
कर रहे थे, उनमें से एक यह कहता हुआ ‘एरिस्ट्रोक्रेट’ की बोतल का ढक्कन खोल रहा था.
भूकम्प राहत कोष का डिब्बा बैंच के नीचे पड़ा हुआ था, उसे देखते हुए मुझे अपने ‘अद्धे’ का असर
खत्म होता हुआ सा महसूस हुआ.                 



                     

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