गुरुवार, 5 जुलाई 2012

जनप्रतिनिधि कानून और चुनाव सुधार

         

          स्वस्थ लोकतान्त्रिक प्रणाली को चलाने के लिए चुनाव सुधार और जनप्रतिनिधि कानूनों में सुधार या संशोधन एक सतत प्रक्रिया है.जिसमें समय की आवश्कतानुसार संसद में ऐसे संशोधन अथवा नए कानून बनाए जाते हैं,जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ ही ना करें अपितु जिसमें जनता की आंकाक्षाओ का भी सम्मान हो.

भारत में चुनाव सुधारों के नाम पर आज तक जितने भी चुनाव-सुधार कानून बने या सशोधित किये गए हैं वे समय कि कसौटी पर खरे नहीं उतारे हैं. दलबदल कानून राजनितिक दलों के लिए सरकार बनाने में सहायक ही सिद्ध हुए हैं. इस कानून से एक तिहाई की संख्या में तोड़ने,खरीदने की खुली छूट मिल गयी है. चुनाव-सुधार के नाम पर किये गए ९१वां संविधान संशोधन में दलबदल करने पर संसद या विधानसभा में ३३% से कम सदस्यों पर देखने में भले ही प्रतिबन्ध लगाया हो लेकिन इससे खरीद फरोक्त,गोपनीय समझौतों से दलबदल कराने,करने में कोई कमी नहीं आयी है. जनप्रतिनिधि कानूनों में अब तक के संशोधनों से अपराधियों,भ्रष्ट लोगों का राजनीति में प्रवेश और भी आसान हो गया है. इससे लोग जेल में रहकर भी चुनाव लड़ और जीत सकते हैं. पहले जिनके पीछे पुलिस रहती थी. जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद पुलिस को उनकी सुरक्षा करनी पड़ती है. कारण साफ़ है.  जनप्रतिनिधि कानूनों में सुधार आधे अधूरे मन से किये जाते हैं और जानबूझकर कानून में ऐसी त्रुटियाँ छोड़ दी जाती हैं जिससे उसका प्रभाव राजनीतिज्ञों,राजनीतिक दलों के हितों पर ना पड़ सके.

        चुनाव सुधारों के सम्बन्ध में अब तक प्रयासों को देखा जाय तो उससे राजनीतिक दलों की इच्छाशक्ति की ही पोल खुलती है दो वर्ष पूर्व के जनप्रतिनिधि अधिनियम में हुए संशोधन देखकर तो यही लगता है. इस संसोधन चुनाव में खड़े होने वाले प्रत्याशियों की जमानत राशि में वृधि कर लोकसभा चुनाव के लिए १०,००० से बढ़ाकर १५,००० विधान सभा में ५,००० से बढ़ाकर १०,००० रुपये की गयी है इसी तरह चुनाव में प्रत्यासियों द्वारा खर्च की जाने वाली राशि को भी कुछ बढ़ाया गया है. समझ में नहीं आता कि सिर्फ इतने मामूली संसोधन से लोकतंत्र को कैसे और कहाँ मजबूती मिलेगी ? ऐसे संसोधनों से ना तो राजनीति का अपराधीकरण रुक सकता है और न ही व्यवस्था में सुधार होगा.

        चुनाव सुधारों के सम्बन्ध में कुछ विचार यहाँ दिए जा रहे हैं ,जिनकी ओर ध्यान दिया जाय तो सुधार की कुछ उम्मीद बन सकती है. संसद या विधान सभाओं में इन पर क़ानून बनाना तो दूर कभी गंभीर चर्चा तक नहीं हुयी है. सत्ता पक्ष हो या विपक्ष आखिर मौसेरे भाई ही तो हैं. वे क्यों खुद पाने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना चाहेंगे ? जनता,मीडिया के दबाव में आकार अगर कभी उन्हें प्रभावी ठोस कानून बनाना पड़े तो उससे पहले ही वे अपने बचाव के लिए क़ानून में खामियां छोड़ना नहीं भूलते. इसका ताजा उदाहरण हाल ही में संसद में पेश जनलोकपाल बिल की मौजूदा स्थिति है.जनभावनावों के विपरीत जाकर सरकार ने प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के टुकड़े टुकड़े कर बिल को प्रभावहीन करने की पूरी साजिश की है. सरकार और विभिन्न दलों के राजनेताओं,संसद सदस्यों द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल बिल पर किये गए आचरण ने उनकी प्रतिष्ठा को अत्यधिक हानि पहुंचाई है. जिसकी भरपाई अब निकट भविष्य में होनी मुश्किल है.

          जन प्रतिनिधियों के लिए न्यूनतम शेक्षिक योग्यता रखने का प्रस्ताव काफी समय से लंबित है. क्योंकि आज के सन्दर्भ में शिक्षित जनता का प्रतिनिधत्व अशिक्षित,विवादित जनप्रतिनिधि करें, लोकतंत्र का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है ?

           हमारे देश में लोकतंत्र बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था पर आधारित है. दल विशेष की नीतियों के नाम पर मतदाताओं से मत मांगे जाते हैं. प्रत्येक राजनीतिक दल अपनी पार्टी की नीतियों ,विचारों को घोषणा पत्र के माध्यम से मतदाताओं के समक्ष रखता है जिसके आधार पर मतदाता प्रत्याशी को वोट देता है अगर दल विशेष का प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बनकर निजी राजनीतिक स्वार्थ के लिए दल बदल कर उस विचारधारा,धोषणाओं को त्याग देता है जिसके आधार पर उसे जनता ने चुना है, तो यह निश्चित ही मतदाताओं के साथ धोखाधड़ी होगी. खेद है कि जनप्रतिनिधि के ऐसे कृत्य को अपराध की श्रेणी में रखने के बदले उसे ‘माननीय’बना दिया जाता है.
          दलबदल के समस्या को समाप्त करने और जनभावनाओं का सम्मान करने के लिए आवश्यक है कि चुना गया जनप्रतिनिधि पुरे कार्यकाल में उसी दल से संबद्ध रहे. अगर वह अपनी दलीय निष्ठा बदलना चाहता है तो सम्बंधित दल या गठबंधन से त्यागपत्र देकर नए दल की नीतियों के आधार पर पुनः मतदाताओं से जनादेश प्राप्त करना चाहिए. मतदाताओं की दलीय निष्ठा व समर्थन को व्यतिगत निष्ठा में बदलने का अधिकार जनप्रतिनिधि को न संवैधानिक है और ना ही  नैतिक.
     उम्मीदवार के दो स्थानों से चुनाव लड़ना व जीतना फिर किसी एक चुनाव क्षेत्र से त्यागपत्र देना उस चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं के साथ जहाँ एक ओर विश्वासघात है, वहीँ यह सरकारी धन के खुलेआम दुरूपयोग का भी नमूना है. संसदीय एवं विधानसभाओं चुनावों इससे सरकारी धन का ही नहीं उस चुनाव क्षेत्र में अन्य उम्मीदवारों का भी काफी धन व समय नष्ट हो जाता है. 

          दो स्थानों से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार अक्सर भारतीय राजनीति के वे धुरंधर खिलाड़ी होते हैं जो किसी भी कीमत पर हार कि कोई संभावना नहीं रखना चाहते या जीत की संभावना को बढ़ा देना चाहते हैं. उन्हें पता है कि उनकी इस विजय-लिप्सा के कारण जनता व सरकारी मशीनरी दोनों को भारी हानी होती है. लेकिन उन्हें इसकी प्रेरणा संविधान की दुर्बलताओं के कारण मिलती है. 

           केंद्र व राज्यों में दल विशेष को पर्याप्त बहुमत न मिलने के कारण गठबंधन सरकारों का दौर चल पड़ा है .राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते ऐसी सरकारें  कभी कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाती हैं ऐसी स्थिति में मध्यावधि चुनाव देश की विकास प्रक्रिया को अवरुद्ध कर देती है साथ ही अरबों रूपों का व्ययभार भी देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बनकर आ जाता है. चुनाव अधिघोषणा से लेकर चुनाव प्रक्रिया पूर्ण होने तक विकास के भी लगभग ठप्प हो जाते हैं.इं परिस्थितियों से भी बचने की आवश्कता है गठबंधन सरकारों के इस युग में एक हाथ से समर्थन देने और दूसरे हाथ से समर्थन वापस लेने की कुटिलता राजनीतिक दलों के लिए सामान्य सी बात हो गयी है सरकार को समर्थन देते समय समर्थन की समय-सीमा स्पष्ट उल्लेख न करना व ‘बाहर से समर्थन देना’ राजनीतिक दलों की इसी कुटिलता को दर्शाता है. हर हालत में निर्वाचित संसद और विधानसभाएं अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करें इसकी व्यवस्था संविधान में होनी चाहिये. जरूरी नहीं है कि दलीय स्थिति में बड़े परिवर्तन हो ही जाए.
          विश्व के कई देशों में जनता की इच्छाओं के अनुरूप कार्य न करने वाले जनप्रतिनिधियों को प्रतिनिधिसभा से वापस बुलाने का प्रावधान उनके संविधान में किया गया है, जबकि भारत में इस पर अभी विचार भी नहीं किया गया है. हमारे देश में लोकतंत्र का स्वरुप लगातार विकृत होता जा रहा है. देश की जनता को अकर्मण्य,विवादित,भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों को पुरे कार्यकाल तक झेलना पड़ता है. इससे न केवल उस क्षेत्र का विकास पिछडता है बल्कि क्षेत्र  की समस्याओं का समय पर समाधान न होने से जन समस्याएं और अधिक बढ़ जाती हैं.

          लोकतंत्र  का आधार मतदान है, तो प्रतिनिधित्व  का आधार बहुमत है. हमारे यहाँ विडम्बना यह है कि कम व सिमित मतदान में भी लोकतंत्र पैदा कर दिया जाता है. जबकि इसके लिए कुल मतदाताओं का ५१% मतदान अनिवार्य होना चाहिए. 

राजनितिक दलों में कितने भी मतभेद हों लेकिन उनमें सरकारी खजाने से चाव खर्च की मांग करने एवं सांसदों,विधायकों  के वेतन भत्ते व अन्य सुविधाएँ बढ़ाने में कोई मतभेद आज तक सामने नहीं आया है. जब जनता को सुविधाएँ बढ़ाने की बात आती है तो इन्हीं  जनप्रतिनिधियों के ढेरों कुतर्क,विवशताएं सामने आ जाते हैं.

        भ्रष्टाचार और काले धन ने आज के समय में राजनीतिज्ञों में अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं. राजनीतिज्ञों,जनप्रतिनिधियों की छवि जनता की नज़र में लगातार गिरती जा रही है. जनता अब राजनीति का शुद्धिकरण चाहती है वह चाहती है कि राजनीति में वे ही लोग आगे आकर उनका प्रतिनिधित्व करें जो न तो भ्रष्टाचार या अन्य आपराधिक मामलों में विवादित हों और न ही जिनकी छवि किसी कारण धूमिल हो.
                          चुनाव सुधारों के नाम पर आज तक जो भी प्रयास किये गए हैं वे सभी ढोंग व नकारा ही साबित हुए हैं. हमारे राजनीतिज्ञों में अभी वह इच्छाशक्ति जागृत ही नहीं हुई है जो स्वच्छ लोकतंत्र को नई दिशा दे सके. भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता के विरोध की जैसी बयार वर्तमान में हमारे देश में चल रही है. वह भविष्य में क्या सकारात्मक परिणाम देगी कहना मुश्किल है.