रविवार, 31 मार्च 2013


भारतीय राजनीति का अजब खेल ..निजी बयानबाजी या राजनीतिक साजिश
 भारतीय राजनीति का जब कोई खिलाड़ी सार्वजनिक रूप से अपना मुंह खोलता है तो उसे पता नहीं होता है कि वह कर क्या रहा है और बोल क्या रहा है. टीवी पर अनर्गल बयानबाजी कुछ नेताओं की आदत बन गयी है.
आजकल कुछ ऐसे ही नेता इस बीमारी से बुरी तरह पीड़ित हैं. सवाल ये है कि जब कोई नेता या किसी राजनितिक दल का प्रवक्ता सार्वजनिक रूप से कोई विवादित बयान देता है तो यह बयान किसी भी रूप से उसका निजी कैसे हो सकता है ? अगर वह किसी पार्टी में या सरकार में किसी पद पर है तो यह और भी गंभीर बात है . सार्वजनिक जीवन से जुड़े व्यक्ति के बयान को निजी मानना बेवकूफी नहीं तो और क्या कह सकते है.
पहली बात तो ये है कि राजनीति में प्रवेश करना ही सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करना होता है. उसकी हर सार्वजनिक कृत्य पर जनता की नजर होनी ही चाहिए.  जनता को उसके बार में जानने का नैतिक अधिकार भी है. इस बात पर सवाल  उठाना लोकतंत्र की अवधारणा को कमजोर करना है. जिन नेताओं को निजि जीवन में किसी की दखलंदाजी पसंद नहीं वे सार्वजनिक जीवन से खुद को हटा सकते हैं. सार्वजनिक जीवन में बने रहना राजनीतिज्ञों के लिए कोई संवैधानिक मजबूरी नहीं है.
निजी बयान को किसी ने  अभी तक परिभाषित नहीं किया है. जब किसी की कोई बात सार्वजनिक हो जाती है तो वह किसी का निजी कैसे हो सकता है. अगर किसी को अपनी निजी बात किसी से कहना है तो उसे व्यक्तिगत रूप से किसी को अपने घर में बुलाकर कह सकता है. टीवी चेनल ,मिडिया को प्रेस वार्ता चलाकर अपनी बात कहना निजी नहीं हो सकता है. इसे निजी भी तभी माना जा सकता है जब वह मिडिया को पहले ही बता दे कि कहे कि उसकी वार्ता एकदम निजी है इसे टीवी ,अखबारों में कदापि ना दिखाएँ. लेकिन होता इसका उल्टा है .पहले वार्ता जोर-शोर से मोडिया में उछाला जाता है. फिर उसकी प्रतिक्रिया देखी जाती है. अगर जनता में सन्देश नकारात्मक चला गया या बयान विवादित हो गया तो पार्टी या सरकार उस बयान से अपना पला झाड़ कर उसे निजी बयान बताकर मांमले को दबाने की कोशिस करने लगती है .
राजनीतिज्ञों को सार्वजनिक रूप से बयान देने से स्वयं सचेत रहना चाहिए. लेकिन अब ऐसा बहुत कम हो रहा है. ये राजनितिक मूल्यों का अवमूल्यन होने का उदाहरण है. भारतीय राजनीति अब हर क्षेत्र में विवादित रूप ले रही है. जनता का विश्वास राजनीतिज्ञों से लगातार उठाता जा रहा है. अगर यही हाल रहा तो लोकतंत्र की मूल अवधारणा ना केवल पूरी तरह समाप्त हो जायेगी बल्कि यह कुछ लोगों की बंधक भी बन कर रह जायेगी. 
मिडिया को भी चाहिए कि  वह ऐसे विवादित बयानों को ज्यादा महत्व ना दे. इससे न केवल लोकतंत्र को नुकसान पहुंचता है बल्कि जनता के धन व समय की भी बर्बादी होती है.    





शनिवार, 9 मार्च 2013

बसंत आया


             

डाल-डाल पर,शाख-शाख पर
नव पल्लवित पत्रों में
हरीतिमा लाया ,बसंत आया.
             मिटी उदासी,खिली खुशियाँ
             दूर देश से प्रियतम का,
             संदेशा लाया,बसंत आया.
गई ठिठुरती रातें,बिखरी उमस की सुबह
हर मन के अंतर्मन में
उमंगों की फुहार लाया,बसंत आया.
               आंगन-आंगन में,द्वार-द्वार पर
               सतरंगी इन्द्रधनुषों का
               बहार लाया ,बसंत आया.
कण-कण में ,जीव-जीव पर
नव यौवन का
संचार लाया ,बसंत आया.